'‘हानि’'-कुमाऊँनी कहानी

कुमाऊँनी जन-जीवन पर आधारित मोहन चन्द्र जोशी जी की कुमाऊँनी कहानी "हानि"  Kumauni story on Pahadi lifestyle

'‘हानि’'
(कुमाऊँनी भाषा में कहानी)
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
🌹🌹🌹🌹🌹🌹

इकदरिक बाट् घाम झउ कनैं हरै गोय। ब्याखुलिक् बखत भौय।  तुंणीं क् बोट में चाड़ाल् चुचाट पाड़ी भौय। रूकि रूकि बेर भैंसोंक् अड़ाट सुणियण लागी भौय।  नानतिनाल् बाखइ में हल्ल मचाई भौय। कर्याठि पनि एक ढेड़ू अलगै अवाज निकावण लागी भौय। खैर और प्यार बल्द ट्यड़ा आंखांल खुटकौंण हैं चाँनेर भाय। गयौं कैं खैंचणैंकि कदु भैगै कोषिष करण लागी भाय।  हानिल् तरबरान गागर भिमें बिसै बेर सिरन खुटकौंणाँक् मुणी क् जा्व खेसि दि। भितेर बै सासुल आवाज लगै हानि! हवे त गोरू कैं गोठ बादि दिये धैं। मणि सुतर लै फिचि दियै।  एक जै बौडि़  काँ-काँ  जै हाथ हालैं? जाड़ोंक् दिन भाय। झप्प कनैं अन्यारै है जाणौं ख्वारनि। बुढ़ी बुदबुदानैं चुप है गेइ।   द्वि नानाँना्न नानतिनाँ कैं ब्वत्यौंनैं कौंनेर भई- पोथी आब्बै त्यर बाब आल। त्वैहैं चाण-गूड़ ल्याल। ... कौनैं-कौंनै कदूग बखत वीक गव भरी औंनेर भय।  फिर इकदरी बाट् छिनक् बाट् कैं चै रौंनेर भई।  लेकिन आश कि ज्योत फिर वीक् हि में बै हुलरि बेर वीक मुख कैं उज्याव करि दिनेर भई।

हानि अच्यैंणि धैं गेइ। बहौंलैल् छिलुका आंठ बणौंण लागि भई। खरकनि पाणि गुनगुन है गोय। नानतिनाल हाथ-खुट ध्वाय। फिर आरती करहौं ल्है ग्याय। हानिक् मन मनैं फूल जास खिलण राय। गोठ-पातौक काम निपटैबेर छिलुकाक नान् चुर-चारि कैं आँङणैंकि दिवालैकि टुक में लागी पयौंणी ढुँङ में धरिबेर चुल्यांणि धैं ऐ गेई। मैक परांण भौय आपण निनांन नानतिना कैं ब्वत्यौंणांक् लिजिक् पिरीताक् मौ सानी, घुरपई जास् र्वाट बड़ै उनुं दगै बात करनैं उनुंकैं खोची-खोची खवौंणैंकि कोशीश करण लागी भई। आग् भुरभुरांनैं फिर टैंणी जानेर भौय। धुमन्न में फूक मारन-मारनैं वीक् आंख च्वैंन है जानेर भा्य। नानतिन धो-थांमण तो भयै, पर जिङ-जिङांनि सासुकि खिदमत लै करण हरेककि बसैकि बात नि भइ। उं लै बखत पर खवौंणैं भाय्। लम्फूक् उज्याव लै धप्प- धप्प करण लागी भौय। मिट्टीतेलक् गेलन लै एक हफत बटि खालि बाजणौंय, वीक् मुख परि लगाई आलूक् ढाकंण लैं चिमाड़ी गोय। गल्यूट में धरी छिलुकाक् क्याड़ लै घडि़-घड़ी समेरण पड़नेर भाय्। वीक् खुटांक् कुरकुचां में कांन् बुडि़यैकि जसि चस्सैक कैं उ थूक लगैबेर कम चितौंनेर भइ। फिर सितण बखत छिलुकांबै तपकणीं लिस वीक खुटाक चिरां में तपकनैं चुई धप्पैक मारनेर भय। लेकिन वीक बाद उ आपण बगेट जास् खुटा में ठण्डी चितौंनेर भइ। वीक उ फाटी कुरकुचाँक् चिर राकसाक् मिरि जास् चिताइनेर भा्य। जदु बखत उ चिराँकैं देखनेर भई उदु बखत उकैं दाथुलैकि रप्पैककि फाम ऐ जानेर भइ, जो वीक मांजिल आंऊं कैं जड़ै बटि भैटै गोछी। उ चांणैछी कि कहांण धरणी तुमाड़ कैं अलबेर बदेइ देलि। लेकिन फुल्यूंड़ों परि जै लागणी बानर,जब के धरो। कदुगै मरो, के लै करो। भरब्याटि में धरी नामकनौक् डाल में नान्-नान् पुन्तुरि में कसिबेर बादी भाय, क्यार्-काकड़ाक् बि। मुस कि खुरबुराट् रात हैं वीक् नीन टोडि़ दिनेर भौय्। अन्यारपट्ट रात में वीक आंखांक् पट्याइ छप्प-छप्प कैं कभतै खुलनेर और कभतै बन्द हनेर भाय्। चौमासी भादोवाक् म्हैंणाक् जास् बादोवोंकि चार वीक स्वैंण फिकरैकि हाव् में आपण स्वरूप कैं बदोवते रौंनेर भाय्।

यौं मनसुपांॅकै दगाड वीक पट्याइ माठु-मांठ् बन्द है जानेर भाय् और थ्वाड़ देर में उ स्वैंणाण लागि जानेर भइ। वीक स्वैंण उकैं कदिनैं खुषि तो कदिनैं फिकर में धरै दिनेर भाय्। स्वैंणा परि वीक विष्वास अटल भौय। कदु दिन स्वैंणोंक् भैंम मेटुंहुँ उ दांणि द्यखौंहौं वार-पाराक् पुच्छ्यारोंक् दुलैंच धैं यकौइ तलै पूछगछ करि मन में थिरथाम करनेर भइ।

सारै गौं में उ जसि बांन क्वे नि छि। जसै तन छि उ हैबेर भल वीक मन छि। पर जस मन छि उस छन नि छि। जो घर बटि चैबेर बाट् पनि पछ्यांणक् देखि जाओ, उकैं धात लगैबेर बुलै और जो लै वीक म्वाव धैं एै जाओ। उकैं उ बिन चाहा पिवाइयै घर बै जांण नि दिनेर भइ। चाहे बिन दूदै कै लालै पाणि किलै नि हो। मिसिरिकि कटक दगै गिलास भरि-भरि बेर वीक मुख धै धरि दिनेर भइ, जसै मणि गिलास आदु है सक, तो उ फिर अघाण तलै आपणि कितेलिल् उमें ढ्वट्यौंणैंकि कोशिश करनेर भइ। वीकि चर्चा मुख-मुख परि रौंनेर भइ। गौंकि सार-वार, वौल्ट-पौल्ट, दुख-सुख, नौक-भौल में वीकि खुटि भिमें नि रौंनेर भइ।

रात्ति-ब्यांण उठिबेर नौव बै पाणि भरि, हानि गोठ गेइ। भैंस हैं चाट् धरि, छपुक खितण लागी। पत्त नैं के बात हइ, उ भैंस बिखुडि़ गोय, कचिनि में हाथ खितणैं नि दिनेर भय। घाम औंण तलै भिरोरड़ में लागी भइ। वीक सुर आब् जागि परि नि भाय्। भितेर जैबेर सासु कैं बताय, सासु ल् कय- हवे! कैकी ढीठि लागि गेछै पै भैंस कैं। त राड़ ल्हिजा , और माथा क् ज्याड़ज्यू हैंबै मन्तरि ल्ह्या। नानतिना क् ब्यौंजण तक तु एै जाली। वील एक पुन्तुरि में मणि राड़, द्वि खुन खुस्यांॅणिक् धर और एक पुन्तुरि में चाऔं धरि पूछ करणैकि मन्सुब धारि ,राड़ मन्तरौं हौं ल्हैगेई। आज वील पाणिकि घूंट लै नि पेई भइ।

ज्या्ड़ज्यूल् रै क् पुड़ी खोलि, चौफाई मोडि़बेर आँङणैंकि दिवाल में बिछि चाकाव थड़ में भैट, आपण आंउवांल् रै कैं खिरोवनैं मन्तर-पाठ षुरू कर-‘ओम नमो आदेष.गुरूको आदेषा..... रै खिरोवण में जम्हाई ल्हिनैं कोंण भै ग्याय।  हवे य भैंस कैं ढीठ लागि रै।  मील य रै मन्तरि हाली।  घर जैबेर रै चिणकिबेर चौबटी में डाड़ु कैं उल्ट करि खन्यै दिये। भैंस ठिक है जाल्।

हानि घर आइ। उसै कर जस बतै रौछी। भैंस में छपुक हालहौं फिर भैट, भैंस कैं फिर चाट् दि। भैंस पँङुरि गोय्। हानि दूद पिवैबेर, भितेर आइ, नातिनाकैं चाय्। चुल में दूद धर। नानतिना कैं दूद दि। मणि आपु हैं लैं चाहा धर, सासु कैं लै दि। सासु कौछ हवे! पारैकि बाखइ बटि साबुलिकि मैं एै रै छी। उ कौंणेंछी कि आज लाकाड़ फाड़ै छू , तुकैं लै न्यौंत छू एक गढ़ौव लाकाड़ ल्हैदियै कै। हानि ल् सासु हैं कौय् - ‘आज तुम धरि दिया अध्याँण, मि घा काटिबेर, लाकाड़ सारहौं जौंल। तब तलै एै जानूँ।’  सासु ल् कय -‘तौं चाउनौं कैं छिटिबेर धरि जा। मणि बिस्वार और उ उदगै हलखुस्याँणि लै पिसि दिये। मि भात पकै रौंल। जल्दी करिये। हानिल् जुगुत करि दि ,फिर आपण डाल् ख्वार में धर। घा काटौं हौं टीटक् गड़ में ल्हैगेई। जबुगा -जबुकी में भरकस डाल् भर। डाल् खुटकौंण में बिसै दि। घर में एैबेर, सासु है कै गेई- ‘हैहो! मि ल्हैगोयूँ हाँ तौं नानतिनाकैं चाया।  गोठ गेई मणि एक-एक आँठ् गाजिक् मुख धैं खिति गेई। कमर में ज्यौड़ बादिबेर, दातुल घाघरि में खोसि, लाकाड़ सारहौं ल्हैगेइ।

वीक भिमें में खुट नि भाय्। साबुलिकि मै ल् वीक लिजिक भौल्भौल गढ़ौव लगै रौन्हौल्। चट्ट वीक घर पुजै औंल। ध-कै पाणि लै ,कटकि चाहा लै वीकै वाँ प्यौंल। य मनसुबाँ में वीक् बिना चप्पलै कै खुट फितौड़ जास् उ हुलार-बाट् में कंकड़ों कैं धुसि ल्हि जाँणाँय् और पिस्यूँ जसि धूल में वीकि पछिल-पछिल उकै छुँङहौं जुजबात् लागी भाय्। आपणि ठौर परि पुजिबेर हानि लाकाड़ बट्यौंण लागी। म्वाव धै पुजि। भरकस गढ़ौव भिमें फाइबेर थाकि बिसौंण लागी। एक भरी ठंण्ड पाणिकि कसिनि, फिर काँस क् भरी तात् गिलास में सुड़ुक मारि बेर घटकौंण देखिबेर साबुली मैं कैं होसि लागण रइ।  ब्याव हुलरि ऐ गेई।  मुखअन्यार हौंण लागणौंय, हानि कैं आपणी घर हैं जाँणैंकि जबुग। छिन परि घाम उछाँण लागि गोय। तुणींक् बोट में चाड़ाल् चुचाट पाड़ी भय।  ग्वाड़ों क् म्वाव-म्वाव पनि  गोरू-बाछांक् लिजिक् मुर और डाँस भजौंहौं लगाई ध अगास हैं उड़ाण लागी भय। धार में देवी’क् थान में घण्टियों क् खणमणांट दगै दमुं बाजणाय।

मुख-अन्यार हौंण भैगोय, हानि कैं घर हैं जाँणैंकि जबुक लागी भइ। साबुलि मै, पानुली मै, जिबुलि पौंणि, हंसी गुस्यांणि कै-कै हैं जै नि बुलानि। घर पुजिबेर उ आइ नौव बटि गागर में पाणि भरि ल्यालि और फिर एक सुप धान कुटलि। भोवाक् लिजिक चांउंनुँकैं छिटली, सारलि। भैंस पिवालि। र्वाट पकालि। भान् मांजलि। नानतिना कैं ब्वत्यालि। फिर टाल् हाली निमैंल दिसाँण में व्याणतार् औंण तलै स्वैंणाँ में हंसलि, स्वैंणां में बुलालि।  दिग..लै... हानि!

................................................................
मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 30-08-2020

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ