कुमाऊँनी लोकगाथा-जिया राँणि
(अंतिम भाग)
(रचनाकार: अम्बादत्त उपाध्याय)
कत्यूरी रानी "जिया" के सम्बन्ध में कुमाऊँ में कई जन श्रुतियाँ प्रचलित हैं
जिनमें "जिया राँणि" के नाम से उनके बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
ऐतिहासिक रूप से उनके बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है
पर इतना अवश्य है की वह कुमाऊँ की एक वीरांगना थी,
जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद अपने किशोर पुत्र के साथ
कत्यूरी राज की बागडोर संभाली थी।
उनका समय लगभग १४००-१४५० ई. के दौरान का माना जाता है,
जिस समय भारत में तुग़लक़/सैयद/लोदी वंश का शासन रहा।
यहां पर हम कत्यूरी "जिया राँणि" के जीवन पर केंद्रित खंड काव्य
कत्यूरी "जिया राँणि" को प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस खंड काव्य की रचना श्री अम्बादत्त उपाध्याय जी द्वारा की गयी है
जिनका संक्षित्प्त विवरण खंड काव्य के प्रारम्भ में दिया गया है।
यह खंड काव्य कत्यूरी "जिया राँणि" के चरित्र के साथ ही
कुमाऊँनी साहित्य की एक उत्तम रचना भी है।
निदेखू सूरत, जब तक रोंल ज्योंन।
सब दिला कांपा जस, जाड़ लागूं ह्योंन॥
कवि-
र बात सुणि, कै कैम के कणि नि आई।
घूना उना डाई हैली, सबल मुनई॥
मन मने कोंनी, जाणि के आघिना होंछ।
राजा पृथीपाल हैति, मालसाई कोंछ॥
मालसाई-
म्यकणि मंजूर छा य तुमरी सरता।
के निहवा मिकैं, हल ईज में जै सता॥
पतिवर्ता मेरी माता, सति का समान।
सांच होंल मेरि रक्षा, कैला भगवान॥
अप मन कसि अबा, तुम करि लिया।
सबों की नजर पुजि,जां भैरछी जिया॥
जिया-
निकंणी भरौस छा कैं, अपा सतै पारी।
च्यलै कैं बचैला म्यरा, कृषना मुरारी॥
मेरी य पुकार जाली, उनरा कानमा।
के निहवा यकैं म्यर सांच जै धरमा॥
बचैला ईश्वर कैंछ मालसाई कंणीं।
परांणु है जादा प्यारा, य च्यल म्यकणी॥
चौतरफी बे हैमेंछ, आजि तक हार।
मेरी नावै कैं ईश्वर लगै दिला पार॥
यकैं जै के हैजाल मैं, छोड़ि द्यूल ज्यान।
हाथ जोड़ि शिवजी’क कैंमें रैछ ध्यान॥
कवि-
आँखों में ऐगया बाब, आँसुओं का धरा।
कसि नक्कि घड़ी ऐ कैं, म्यरा च्यला परा।।
नक होंछ म्यरा भैया, औलाज का दाग।
चिमटा फौड़ ततै हैं, जगे हैल आग॥
ईजा खुटा पड़ि गोय, पैजै मालसाई।
औरों हाँति हाथ ज्वड़ा, दूर बती भाई॥
सवुलै दिहल तब, य आशिरवादअ।
पूरी हैजो मालसाई, मन की मुराद॥
जिया-
जिया राणि कैहैं बबा, म्यकणी टक्य्वलै।
म्यर नाम कुमाऊँ में उजागर कलै॥
कवि-
सनतान लिबे होंछ, मै बाबुक नाम।
कुसन्तान पैद हैगे, होंछ बदनाम॥
पैद नाहो कैका घर, बिनासि औलाज।
दसों का बीचम विकी, उड़ि जैछ लाज॥
मानण चैं भाई लोगो, कय मै-बुवों’क ।
उनर सराप कैद्युं, पछिनक नक॥
मैं बाबु कैं मानो तुम, देबता समान।
अम्बिया बचन सुणी, लगै बति कान।।
ल्यखण भैरयु आजि, आघिना का हाल।
चिमटा फौड़ है गया ताति बति लाल॥
एकै लै चिमट थाम, एक ल्युंछ फौड़।
मुनई थामुछ एक करि हौल चौड़॥
मालसाई कैं जवा हैं, तैयार है गया।
जतु’वां भै रछी हक, सब हैगे मया॥
सभा में लोगों का
कसिका बचल कोंनी, लठ कस थान।
हमुलै नि देख आज तक यस बान॥
जई बति क्वैल हल, यतु भल नान।
एका बद्यलम तहां, हम मरि जान॥
और कुवरों हैवति, यछा सुनदर।
सव का आंखों में ऐगि आंसुओं का धर॥
इनसाफ निकै जाँण, रजा ज्युलै भल।
जियक परांणि कतु, झुरि रहनल॥
मन मनें कण लागा, ईश्वर का ध्यान।
नारायणों बचै दिया, य ननै की ज्यान॥
वैराठा में रौंणियों का यसा हैरी हाल।
मालसाई हंणी हैगिं, शिवजी दयाल॥
कवि-
चीमट पदना मजि, लाग हैबे लाल।
एक ता निजव रामा, मालसाई बाल॥
यस चिता ह्यों का ढिन, धरि है पुठिमा।
अनोखी है म्यरा भया, ईश्वरै महिमा॥
पतिबरता सैणि का छैं, ईश्वरा सहाई।
जिया पतिबरता नि, जल मालसाई॥
सती जैका घरा, उति भगवान वास।
बचलन कैहैं दिछा, सुकुल क नास॥
लक्ष्मी हैं जैका घर, अन धन देर।
कुजाति घर उजाड़ि, निलगानी देर॥
जतु म्यरा भाई वैणी, रहया सतमा।
सैणी बदनाम है जैं जरा सी बातमा॥
अपण मैंषक कयों, मानण चैहैंछ।
नतर पछिना सैणि, खेडूवा है जैंछ॥
पति स्यव सतकार, नारि करली।
बुढ़ापि उमर में उ, सुखम रहली॥
धरम करम सबै, एती बागी जांछा।
बुति दिय कान जबा, फल कांबे आंछा॥
बरोबाद निकरण, आपण ईमान।
कुबातु में रुठि जानि, सिरी भगवान॥
पतिव्रता सैणि की है, हमेशा इज्जत।
मेरि बात ध्यान धरों, कोंछ अम्बादत्त॥
जिया सतै पारि देखो, कसि छी सगती।
जवांणी मैंषु की हैगे, सुणो दुरगती॥
बदना बे छुटै हैरी, पसिणा का धरा।
हमरि नौकरि पारि, पड़ि जो बजरा॥
जलाने वालों का
रौटि जसा ताति गोय, आज एति हम।
अवतारी मालसाई, नै कै हैवै कम॥
जवानें जवानें यपा, निल्लाग क्वे दाग।
हाथ फूकी गईं तातने तातने आग॥
रातियै की नमुयावो, है गेछा ब्याखुली।
जिया राणी सतै कैंहै, कथा गोय भुली॥
चिम्ट फ़ौड़ दूर खेड़ि, खुटा पड़ि गया।
जाड़ै लै कांपड़ हैर, मालसाई भया॥
यस कनी कुंवर ज्यू माफ करी दिया।
य सब हमुलै करो, पेटाका लिजिया॥
गलती हमरा बूती, है गेछ जरूर।
हैंसि बै कौं मालसाई, के तुम कसूर॥
मालसाई-
निभाय फरज भया तुमुल आपण।
रज ज्यू हुकम पड़, तुसुकैं मानण॥
ईजा का सतै लै बच भाई लोगो आज।
सिरी भोलेनाथ ज्यूलै, धरी दिय लाज॥
कवि:-
चारों ओर बटि हैगे, तब जै जैकार।
मां च्यल क नाम हय, पहाड़ा अमार॥
जिय सत शिबै माया, बच मालसाई।
मंगना नतर द्वियै, सबु मुखै गाई॥
उठि बति आई गया, राजा पृथीपाल।
हरसा मारिया हैरी, मनमा बेहाल॥
अगाव किटनी रज, मालसाई पर।
आंखों में ऐगया आंसू, खुशियों का धर॥
पृथीपाल-
लिण पैरीं बार-बार ननै भुकि चाटि।
तेर साल च्यला त्वीले दुःख मजी काटि॥
मेरो गलती लै हछा तुम परेशान।
निहय तेरि इजकौ, कै मकणिं के ध्यान॥
नै ऐलै कसूर कर, नै के बात हया।
जांणि क्य य हैई गेछी, ईश्वरै का मया॥
ख्वरमा सवार जाँणी, म्यर कै हैगोय।
तेरि ईजक खयाल, जो मैं भुलि गोय॥
दुःख लेखी यतु व्येलो, तुमा भाग पारी।
बीर चेलि तेरि माँ, जो हिम्मत निहारी॥
तेर साल मुनिलों वां, अपा सतमा।
सीता सती पारबती, है बैं निछा कमा॥
कुमाऊं में एक नाम, रल मशहूर।
पहाड़म जियै पुज, करिला कत्यूर॥
तुमुलै मारि है बबा, बड़ि भारि बाजी।
रजै हैंति मालसाई, कों के आजि बांकी॥
मालसाई-
हुकम दिदियो तुम न धरो मनमा।
आज य है गोय म्यर, दुसर जनमा॥
जसि मैं मरौछी निकै, उमजि कसरा।
तुमु देखि लागै मैं रै, आजि तकी डरा॥
के सक रहैगो तुमु, मेरि इजै पार।
करौ अजमैस आजि, मैं छो तैगियार॥
कथै कैं मरे हैं मिकै, ठाड़ कर दिया।
छाति पारि किटि लिछ, च्यलै कणि जिया॥
हरसा का आँखों मजी, आंसू आई रई।
मालसाई कि मलासी, जिय लै मुनई॥
जिया मालसाई से
बोज्यू हैति नका बबा, टेड़िं टेड़ि बात।
माफि मांग इनू हैति, जोडि बति हात॥
मैं माननू रजा ज्यू कैं, देवता समान।
मैबुवों’क को कहोंछ, च्यला अपमान॥
पृथीपाल-
पृथीपाल कौनि अब, मैं मांगनू माफी।
तिकै सजा दिबै दुखी, मैं हैगोय काफी॥
त्यर यों बचना सुणि कस, कलजमा।
यो विचार निल्या बाबु आपण मनमा॥
रजै कैं करण पडू, सबुक ईनसाफ।
बिना सजा दिबे कैकैं, निकरना माफ॥
हमरा लिजिया हया, सबै बराबरी।
या आपणी सैणि या क्वे हैई जो दुशरी॥
पक्षपाती रजै कणि, निबताना भल।
क्षत्री बंसी रजुक रौं, बचन अटल॥
तुमु के निद्युन जबा, मैं यस हुकम।
कुमाऊँ में बदनाम हैई जना हम॥
तेरि मांक सत पारि, सबू विसवास।
य कानून कै है मैंलै आज बति पास॥
नौ लाख कत्यूरों क तु, बनै हैछ रजा।
हुकम चल्लल त्यर, पुरी सभा मजा॥
रंगीली वैराठ मजि, त्यर अकत्यार।
सौंपनू तिकणी राज, पाठ कार बार॥
अकलै की बात सुण, म्यरा मालसाई।
कैदगै निकण बाबु, राजम अन्याई॥
क्षत्री वंसी धरमैं कैं तु भुलिये झना।
भुकै कैं दिहये च्यला, पेट भरि अना॥
नंग कैं लुकुड़ दिये, गरीचे, कैं धना।
दुखिया मैंषै कैं बाबु, तु सतये झना॥
परजै दगड़ि रये, सरल स्वभाव।
रजै कै कण पडूं, भल बरताव॥
दुशमणों कैं पुजय मारि वति लात।
बैराठा मुलुक मजी, कये च्यला ठाट॥
सबुंका दगड़ी कये म्यर बबा न्याई।
क्वे काम करलै लिये, सयाणों की राई॥
दूद कतु दूद कये, पाणि कये पांणी।
नना ठुला हणी भल्ली, बुलाणी चैं वांणी ॥
अपू है सयाणूं बात, ध्यानम धरिये।
जो काम ऊ नका कैल ऊ झना करिये॥
निकहंण अन्न धन, बल अभेमान।
यो बातों में रूठि जानी सिरी भगवान॥
कवि-
यतु बात च्यलै कंणी समझाई भाई।
राजा पृथीपाला खूटा पड़ मालसाई॥
मालसाई पृथीपाल से:
अमाक ऐगोय मारों में र्बे बति चिगार।
नना छिना निपै सक मैं तुमर प्यार॥
आज तक रहय मैं ईजा का दगड़ी।
तुमर रोहोंछी बौज्यू ख्याल हर घड़ी॥
तुमै याद मन मजी जै दिना बे जागी।
दगड़ी ननू हैं कौंछी, तुम बड़े भागी॥
मां बाबू’क प्यार पंछा तुम सबै झण।
आंखों में ऐजैंछि उद्या सासू मण-मण॥
यां ऐ बटि देख जबा, तुपर स्वभाव।
साक सात निकला यों कम म्यर काव॥
नानि अकैल लै निसमझी एक बात।
माफ कर दिया म्यरा जोड़िया छैं हात॥
उल्ट पल्ट बचना जो तुम हैं कै देई।
तुमे बात सुणी बौज्यू अकल ऐगई॥
कवि-
सबै खुशि हैंगया यों बानों के सुणी।
तारीफ कहने गया अयां घरों हुँणी॥
दिन बीता बिति बाबु मैहैंण छै सात।
झित घड़ी आजि सुण तुम मेरी बात॥
पृथीपाल ज्यूक हय, स्वरगाक वास।
बैराठे परजा भया, है गई निरास॥
उनरा राजम पांण, हछी सब सुख।
सबूं कैं हैगोय उन, बड़ भारि दुख॥
उन् जस न्याई कनी, को अब करलड।
परजै कैं मानछिया, पृथीपाल भल॥
रव्वे-रव्वे बटि करि जिया, आपूं कैं बेहाल।
कुंवरों का रुनैं-रुनैं आँखि हैगि लाल॥
सोक पृथीपाल ज्युक, सबू कैंणी हय।
आंणि जांणि दुनिया छों, सदा को रहय।।
नामि च्यला दुनि मजि चलै जानि नाम।
मरिबे यहाद आं, जो कैंजा भल काम ॥
बैराठक रज बन, पैजै मालसाई।
जियक हुकम सारे, चलछिय भाईरव्वे
य किताब म्यरा भया, हैई गेछ पूर।
सुफल है गई मिहैं, नौलाख कत्युररव्वे
कत्यूरों की बात हैलि, भाइयो य सांचि।
अपणा मनेंले ल्यख, कथैं-कथैं बांकी॥
बात जतु जाण छिय, उतु लेखि हली।
बदनाम झन कया, निलागो यों भली॥
हात छैं जोड़िया म्यरा नना ठुला हणीं।
मिहणि रिसाया झना, म्यरा भाई बैंणी॥
नै है तिना बिलकुल, म्य कणो के ज्ञान।
ल्यख शिबा चरणों में, लगै बति ध्यान॥
सब लोगों हणि बाबु, माँगनु मैं माफी।
तुमर हरज कैहै, मैं आज काफी॥
किताब करनू बन्द, कैबे नमस्कार।
अपण-अपण कवो, अब कार बार।
॥इति शुभम्॥
खंड काव्य "जिया राँणि" की मुद्रित प्रति pdf फॉर्मेट में Kumauni Archives पोर्टल पर उपलब्ध है
यह सम्पूर्ण खंडकाव्य फ्लिपबुक फॉर्मेट में भी पढ़ने को उपलब्ध है
फोटो सोर्स: गूगल
0 टिप्पणियाँ