
कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०३ (Sunderkand-03)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़
को साभार हार्दिक धन्यवाद।
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ
श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते
कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड
दोहा-,
जनर बल लवलेश लै जीता चराचर सारि।
वीक दूत मि जैक करी हरि ल्याछै प्रिय नारि।।21।।
जाँणनूँ मि तुमरी प्रभुताई। उ सहसबाहु हैं हँछि लड़ाई।।
लड़ै बालिहैं करी यश पाँछ। सुणि कपि वचन हँसीबे टालँछ।।
खाइनाँ फल लागि प्रभु भूखा। कपि स्वभावल् टोडि़ना रूखा।।
सबुकैं देह परमप्रिय स्वामी। मारछि मिकैं कुमारग गामी।।
जैल मिकैं मार मिलै उ मार। उ परि लै बादि ल्याछ च्यल तुमर।।
म्यकैं न के बादियणैं कि लाज। करण चाँनू आपु प्रभुक् काज।।
विनति करनूँ हाथ जोडि़ रावण। सुणो मान छोडी म्यर सिखावन।।
देखो तुम आपु कुल विचारी। भ्रम छोडि़ भजो भक्तभयहारी।।
जनरी डर ल् अति उ काल डरँछ। जो सुर असुर चराचर खाँछ।।
उनुँ हैं बैर यस कभी नि करो। म्यर कौंण पर जानकी दि दियो।।
दोहा-
प्रणतपाल रघुनायक करूणाक् सिंधु खरारि।
जै शरण प्रभु हरि ल्हला तुमर अपराध बिसारि।। 22।।
राम चरण कमल हिय में धरो। तब लंका अचल राज तुम करो।।
ऋषिपुलस्त्य यशक् य निर्मल मयंक।उ जूनमें कभैं निहओ कलंक।।
राम नाम बिन वाणि नि छजनीं। देखो त्यागि मद मोह विचारि।।
वस्त्रहीन नि छाजनीं सुरारी। सब भूषण भलि भूषित नारी।।
राम क् विमुख संपति प्रभुताई। जानि रैं पाई बिनैं पाई।।
पाणिक् मूल जो गाड़ों न्हैंति। बरख बिती उँ फिर तबै सुखनीं।।
सुण दशकंठ कौंनूँ प्रण रोपी। रामविमुख रक्षणीं क्वे न्हैंती।।
शंकर सौ विष्णु अज उँ तुकैंणीं। बचै नि सकना रामक द्रोही।।
दोहा-
मोह मूल भौत दुख दिणिं त्यागो तम अभिमान।
भजो राम रघुनायक कैं कृपा सिंधु भगवान।। 23।।
यद्यपि कै कपि अति हितै वाणीं। भक्ति विवेक विरति नीति साँनीं।।
हँसिबे बुला महा अभिमानी। मिल हमुकैं कपि गुर बड़ ज्ञानी।।
मृत्यु नजीक आई खल तेरी। लागछै अधम सिखौंण मिकैंजी।।
उलटै हणि छु बुला हनुमाना। मतिभ्रम पडि़ त्यर प्रकट मि जाँणा।।
सुणीं कपि वचन भौतै रिसाँण। जल्दि किलै नि हरन मूढ़ाक् प्राण।।
सुणि निशाचर मारणहुँ धाया। सचिव दगड़ी विभीषण आया।।
न्यौड़ै शीश करि विनय भौता। नीति विरूद्ध न मारण दूता।।
दुसर दण्ड के दि दियो गुसाई। सबुलै क मंत्र भल कौछ भाई।।
सुणनैं हँसँछ बुलाँछ दसकंधर। अंग भंग करि भेजि दियो य बन्दर।।
दोहा-
कपि की ममता पुछड़ पर सबहैं कौंनुँ समझै।
तेल डूबे कातार् बादि फिर अगिनि दियो लगै।।24।।
पुछड़ बिना य बानर वाँ जाल। तब सठ आपु नाथ कैं ल्हि आल।।
जनरि करँछ य भौत बड़ाई। देखूँल मिं उनरी प्रभुताई।।
वचन सुणनैं कपि मनैं मुस्काण। भैछ शारदा सहाइ मि जाँण।।
जातुधान सुणि रावण वचना। लाग रचण मूढ़ वीकि रचना।।
रय नैं नगर बाँकि घ्यू तेला। कपि पुछड़ बादि करणीं खेला।।
तमाश देखण आइं पुरवासी। मारनि ठोकर करी भौत हॅंसि।।
बाजणीं ढोल दिनि सब ताली। नगर फिरै पुछड़ आग हाली।।
जब अग्नि जलणं देखी हनुमंता। भाई नानूँनान् रूप तुरन्ता।।
निकइ चढि़ प्रभु सुनैकि अटारी। भइं भयभीत निशाचर नारी।।
दोहा-
हरि प्रेरित वी बखत हाव चलँणई उनचास।
अट्टहास करि कपि गर्जा बढ़ी लागनीं अकास।।25।।
देह विशाल भौत हँऊँ हई। महल बै महल उँ चढ़नैं रईं।।
जलण नगर हनिं लोग बेहाल। लपट झटपट अति कोटि कराल।।
ओ इजा ओ बाबू सुणो पुकार। य बखत आब् के हमुँ उबारौं।।
हमूँल जो कय य बानर न्हैंति। बानर रूप धरी सुर कोई।।
साधु अपमान क् फल पाय यस। जगां कस नगर अनाथैक् जस।।
भड़्याय नगर सब एकै क्षण मजि। एकै विभीषण कै घर न्हैंतीं।।
वीक दूत अगिनि जैल पनपा। जगै नैं उ वी कारण गिरिजा।।
उलटी पलटी लंका सब जगी। फिर उँ कूदि पड़ा समुद्र मेंजी।।
दोहा-
पुछड़ निमै थकान गेई धरि नान् रूप फिरि।
जनकसुता का अघिल ठाड़ भया हाथ जोड़ी।।26।।
माता दि दियो मिकैं चिन्नाणीं। जसि रघुनायक ल् मिकैंणि देछी।।
चूड़ामणि उतारी तब देछी। हरष समेत पवनसुत ल् ल्हेछि।।
कया तात यस म्यार प्रणामा। सब प्रकार प्रभु पूरणकामा।।
दीनदयाला विरद संभारी। हरो नाथ म्यार संकट भारी।।
तात सुक्रसुत उ कथा सुणाया। बाँण प्रताप प्रभु कैं बताया।।
म्हैंण दिनन में नाथ नि आया। तो फिर मिकैंणि ज्यौंन नि पाला।।
कओ कपि के विधि धरनूँ प्राण। तुमलै तात कौंछा अब जाँण।।
तुमुकैं देखि अरडि़ भै छाती। फिर मिंहणीं वी दिन वी राती।।
दोहा-
जनकसुता कैं समझै उँ भौतै विधि धीरज दि।
चरण कमल ख्वर न्यौड़े कपि रामाक् पास गीं।।27।।
हिटँण महाधुनि गर्जणीं भारी। गर्भ ख्यड़नीं सुणि निशिचर नारी।।
लाँघि समुद्र य पार जब आया। शब्द किलकिला कपि लै सुनाया।।
हरशा सबै देखि हनुमाना। नँ जन्म तब बानरों लै जाँणा।।
मुख प्रसन्न उ आँङ तेज विराज। करि ऐगींन रामचन्द्र क् काज।।
मिला सबै अति भया सुख्यारी। तड़फनैं माँछ पाँछ जसि पाणीं।।
हिटा हरशि रघुनायका पास। पुछनैं कौंनैं नई इतिहास।।
तब मधुबन भीतर सब आया। अंगद समेत म फल खाया।।
रख्वाव वाँक जब बरजँण लागा। मुट्ठी मारी छुटा सब भाजा।।
दोहा-
जैबेर पुकारनिं सब बँण उजाड़ युवाराज।
सुणि सुग्रीव हरषीं कपि करी आया प्रभु काज।।28।।
जो नि हनिं सीताकि सुधि पाई। मधुबन क् फल सकछि के खाई।।
यै विधि मन विचार करि राजा। ऐगींना कपि सहित समाजा।।
ऐबेर सबुँहुँ नवा पद सीस। मिलनिं सबुँकैं अति प्रेम कपीस।।
पुछनीं कुशल कुशल पद देखी। राम कृपा भय काज विशेशी।।
नाथ काज सब कर हनुमाना। धरी दि सबै कपियों क् प्राणा।।
सुणि सुग्रीव फिर उनुँकैं मिलनीं। कपि दगड़ी रघुपति पास जानीं।।
रामैलै बानर औँण देख। करी है काम कै हर्ष विशेष।।
स्फटिक शिला भैटि द्वियै भाई। पड़ा सबै चरणों में जाई।।
दोहा-
प्रीति सहित सब भेटनीं रघुपति करूणा पुंज।
पुछनीं कुशल नाथ आब् कुशल देखी पद कंज।।29।।
जामवन्त कँ छ सुणो रघुराया। जपैर नाथ करी तुम दाया।।
वैहैं सदा शुभ कुशल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न वीक ऊपर।।
वी विजई विनई गुण सागर। उनार सुयश त्रिलोक उजागर।।
प्रभुकि कृपाल् हैगो सब काज। जन्म हमर सुफल हैगौ आज।।
नाथ पवनसुत करी जो करनी। सहसबाहु मुख निजानि उ बरनी।।
पवनतनय का चरित सुहावन। जामवंत रघुपति कैं सुणाइंन।।
सुणी कृपानिधि मन अति आया। फिर हनुमान हरषि हि लगाया।।
कओ तात के भाँति जानकी। रैंछ करैंछ रक्षा स्वप्राण की।।
दोहा-
नाम पहरू दिन रात क् ध्यान तुमरै कपाट।
आँख तुमर पद में लागि जानिं प्राण को बाट।।30।।
औंण में मिकैं चूड़ामणि देछि। रघुपति हिया लगै उकैं ल्हिनीं।।
नाथ द्वियै आँखा भरि पाणीं। जनक कुमारी कैं कुछ य वाणि।।
नान भै दगै पकडि़ प्रभु चरण। दीनबंधु छन प्रणतारति हरण।।
मन क्रम वचन चरण अनुरागी। के अपराध नाथ मिकैं त्यागी।।
अबगुण एक म्यार मि माँनन्हाल। बिछुड़नैं प्राण किलै नि गेन्हाल्।।
नाथ य नैंनन को अपराधा। निकवहौं प्राण करणीं बाधा।।
विरह अगिनि तन रूइ समीरा। स्वास जलैंछ क्षण मजि शरीरा।।
नैंनन बग पाणि आपु हित लिजि। जलि नि पानी देह विरहागी।।
सीता की अति विपति विशाला। बिनैं कई भलि दीन दयाला।।
मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 26-10-2020

................................................................
0 टिप्पणियाँ