सुन्दरकाण्ड कुमाऊँनी भाषा में भाग-०२

कुमाऊँनी भाषा में सुन्दरकाण्ड पाठ - Kumauni Bhasha mein Sunderkand path

कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०२ (Sunderkand-02)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में 
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में 
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़ 
को साभार हार्दिक धन्यवाद।

श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ

श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते

कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड

दोहा-
जाँ ताँ ल्हैगीं सबै तब सीता का मन सोच। 
म्हैंण दिन बिताल् मिकैं मारल् निशाचर पोच।।11।।

त्रिजटा बुलै हाथ जोड़ी। माता विपति संगिनी मेरी।। 
त्यागूँ देह कर जल्दि उपाई। दुसह विरह अब सही नि जाईं।।
काठ ल्हिबे रच चिता बड़ाई। माता फिर आग दे लगाई।। 
सत्य करिदे मेरि प्रीति सयाँणि। सुण को काँनल् कान् जसि वाणि।। 
सुणनैं वचन खुट पडि़ समझैंछ। प्रभु प्रताप बल सुयश सुणैंछ।।
रात न आग् मिलँ सुण सुकुमारि। यस कै उ आपु घर ल्हैगेई।। 
कैं सीता भ छ विधि प्रतिकूला। मिलँछ नैं अगिनि मिटँछ न सूला।। 
देखिछ अगास प्रकट अंगारा। धरती नि औंन एक लै तारा।। 
अग्निमय जून बरसों न आगी। मानो मिकैं जाणि हतभागी।। 
सुणि विनय मेरि बोट अशोका। सत्य नाम करी हर म्यर षोका।। 
नईं नईं पात अग्नि समाना। दे अगिनि झन करिये निदाना।। 
देखि परम विरहाकुल सीता। उ क्षण कपि हैं कल्प जास् बीता।।

सोरठा-
कपि कर हृदय विचार मुनड़ी दिनीं ख्यडि़बे तब। 
जाँणि अशोक अंगार दे हरषि उठि हाथ थाम।।12।।

तबै देखी मुनड़ी मनोहर। राम नाम अंकित भौतै सुन्दर।। 
चकित देखी मुनडि़ पछ्याँणीं। हर्ष विषादै हृदय अकुलाणीं।।
जिति को सकुँ अजय रघुराई। माया लै यसि रची नि जाई।। 
सीता मन विचार कर नाना। मधुर वचन बुलाँण हनुमाना।।
रामचन्द्र का गुण वर्णन लागीं । सुणनैं सीता का दुख भाजीं।। 
लागी सुणण कान मन ल्याई। आदि बटी सब कथा सुनाई।। 
कानों क् अमृत भलि काथ् जैल। किलै नैं भाई उ प्रकट ऐल।। 
तब हनुमंत नजीक ल्है ग्याया। फरकिबे भैटी मन विस्मय भया।। 
रामक् दूत मिं मातु जानकी। सत्य कसम करुणानिधान की।। 
य मुद्रिका माता मिं तो ल्याई। देछ रामल् तुमुँकैं निशाणी।। 
नर बानर संग कओ छन कसिक।कै दिनि कथा भइ संगति जसिक।।

दोहा -
कपि का वचन सप्रेम सुणिं वी उपज मन विष्वास। 
जाँण मन क्रम वचन य हल वी कृपासिंधु क् दास।।13।।

हरि भक्त जाणि प्रीति अति गाढ़ी ।सजल आँखीं पुलकावलि बढ़ी।। 
डुबनैं विसह जलधि हनुमाना। भौछा तात मिहैं जलयाना।। 
अब कओ कुशल जौं बलिहारी। नानभै सहित सुख घर खारारि।। 
कोमल हिय कृपाल रघुराई। कपि के कारण धरि निठुराई।। 
सहजबानि सेवक सुखदायक।कभैं फाम करनीं रघुनायक।।
कब आँखि म्यार शीतल ताता। हला चै साँवल कँऊँ गाता।। 
वचन नि औंन आँखि भरि पाँणीं।अहा नाथ बिल्कुलै मि भुलै दी।। 
देखि भौतै विरहाकुल सीता। कईं कपि कँऊँ बचन पुनीता।। 
माता कुशल प्रभु भुलुक समेत। तुमार दुख दुखि सुकृपानिकेत।। 
करिये जननी हिया झन नान्। तुमुँहैं प्रीति छु रामकैं दुगुण।।

दोहा-
रघुपति क् संदेश अब सुण जननी धरि ल्हे धीर। 
यस कै कपि गदगद भय भरिंण आँखों में नीर।।14।।

कौछ राम वियोग त्यर सीता। मिं हणीं सबै भया विपरीता।। 
कँऊँ नइं पात अगिनि चितौंनूँ। कालरात्रि रात जूंन भानू।।
कमलों का बँण भालों बँण जस। तात्ते तेल जस पाँणि बारिस।।
जो हितकारी दिण रीं पीड़ा। स्याप स्वाँस जसि त्रिविध समीरा।।
कैबेर लै कुछ दुख घटि जाँछ। कौनूँ कैहैं य क्वे नि जाँणछ।।
पै य प्रेमक तत्व म्यर और त्यर।जाँणछ प्रिया बस एक मन म्यर।। 
उ मन सदा रौछ त्यार पासा। इतुमें समझ य प्रीतीक् रसा। 
प्रभु संदेश सुणनैं वैदेही। मगन प्रेम तन सुधि के न्हैंती।।
कँ छ कपि हिया धीर धर माता। सुमिर राम सेवक सुखदाता।।
हिय ल्याओ रघुपति प्रभुताई। वचन म्यर सुणि छोडि़ कदराई।।

दोहा-
राक्षस समूह पतंग सम रघुपति बाँण कृसान। 
माता हृदय धीर धर भडि़णां निशाचर जाँण।।15।।

जो रघुवीर हनीं सुधि पाई। करना नैं बिलम्ब उ रघुराई।।
रामबाँण सूर्य उग जानकी। रँ अन्यारथुपुड़ काँ जातुधानकी।। 
अल्लै माता मि जाँछि ल्हिजाई। प्रभु आज्ञा न्हैं राम दुहाई।। 
कुछै दिन जननी धरी धीरा। बानरों संग आल रघुवीरा।। 
राक्षस हति उँ तुमुकैं ल्हिजाला। त्रिलोक नारदादि यश गाला।। 
छन सुत कपि सब तुमरै समान। राक्षस योद्धा भौत बलवान।। 
म्यर हृदय भौतै परम संदेह। सुणि कपि प्रकट करी आपु देह।। 
सुनक् जसै पर्वताकार शरीर। लड़ैं में भयंकर अति बल वीर।। 
सीताक् मन भरौस तबै भय। फिर नानूँ रूप पवनसुत भय।।

दोहा-
सुणों माता वानरों कैं निहन बल बुद्धि विशाल ।
प्रभु प्रताप गरूड़ कैं नेवों नाँनुनान् स्याप।।16।।

मन संतोषीं सुणीं कपि वाणीं। उ भक्ति प्रताप तेज बल सानी।। 
आशीष दि दी राम प्रिय जाँणा। हओ तात बलशील निधाना।। 
तू अजर अमर गुणनिधि है जा। करो भौतै रघुनायक किरपा।।
करो कृपा प्रभु यश सुणि काना। उ निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।। 
बार बार न्यौंड़ै पद शीशा। बुलै वचन हाथ जोडि़ कीशा।।
आब् कृतार्थ है गीं मिं माता। त्यर आशीष अमोघ विख्याता।।
सुणों माता मिकैं अति भूखा। लागी देखि सुन्दर फल रूखा।। 
सुण सुत करनिं बँणैंकि रख्वाई। ठुल योद्धा रजनीचर भारी।। 
उनरि डर माता मिकैं न्हैंती। जो तुम सुख मानो मन मेंजी।।

दोहा-
देखि बुद्धि बल निपुण कपि कैंछ जानकी जाओ। 
रघुपति चरण हृदय धरि तात मधुर फल खाओ।।  17।।

हिट न्यौड़ै ख्वर घुसि गीं बागा। फल खै बोट उँ टोणण लागा।। 
रौंछि वाँ भौत योद्धा रखवार। कुछ मारा कुछ जानीं पुकार।।
नाथ एक ऐरौछ कपि भारी। वील अशोक वाटिका उजाडि़।।
फल खाय और बोट उपाड़ा। रक्षक मसलि मसलि भिमें डाला।।
सुणि रावण ल् भेज भट नाना। उनुँकैं देखि गर्जा हनुमाना।।
सबै निशिचर कपि लै संहारी। ग्याया पुकारी कुछ अधमरी।
फिर भेजनीं वाँ अक्षयकुमार। दगड़ी ल्हिगोय उ सुभट अपार।।
औंण देख बोट ल्हि ललकारी। महाधुन गर्जि उकैणीं मारी।।

दोहा-
कुछ मारा कुछ मिनि हैछि कुछ मिलिणींनां धूल।
फिर कुदि जै पुकारनिं प्रभु बानर बल भरपूर।।18।।

सुणि च्याल मर लंकेश रिसाणां। भेजछ मेघनाद बलवाना।। 
मारँण न च्यला बादिबे ल्यया। देखि जो कपि काँ रौंणीं भया।।  
हिटछ इन्द्रजीत अतुलित योद्धा। निधन सुणि उपजछ क्रोधा।। 
कपि द्यखनि आइं दारूँण योद्धा। कटकटाँनैं उँ गरजनैं दौड़ा।।
अति विशाल बोट एक उपाड़ा। बिन रथ क् कर उ लंकेशकुमार।। 
जो रया महाभट वीक संगा। पकड़ी कपि मिननीं आपु अंगा।। 
उनुँ कैं मारी वैहैं लड़णँ लागा। मानो भिणनीं उँ द्वि गजराजा।। 
मुट्ठि मारि बोट में ल्है ग्याया। जिती नि जाना प्रभंजन जाया।।

दोहा-
ब्रह्मास्त्र वील साधि है कपि मन करनि विचार। 
अगर नैं ब्रह्मास्त्र मानूँ महिमा मिटलि अपार।।19।।

वीलै ब्रह्मास्त्र ल् कपि कैं मार। छुटँण बखत हँछ सेना संहार।। 
वीलै देख कपि मूर्ति हैगो। बादि नागपाश में ल्हिनैगो।। 
जैक नाम जपि सुणो भवानी। भव बंधन काटनीं नर ज्ञानी।। 
वीक दूत के बादण म् आल। प्रभु कार्य लिजी कपि लै बंधाँछ।।
बानर बादि सुनि निसिचर दौडि़। तमाश द्यखणहुँ सभा सब आैंछि।।
दसमुख सभा देखि कपि जाई। कइ नि जानि कुछ अति प्रभुताई।।
हाथ जोडि़ दिक्पाल विनीता। भौं ताकनीं सबै भयभीता।।
देखि प्रताप नैं कपि मन शका। जसि स्यापथुपुड़ गरुड़ अशंका।।

दोहा-
कपि कैं देखि दशानन हँसछ कैबेर दुर्वाद। 
च्यलैकि मरणैकि फाम करि उपज हिया विवाद।।20।।

कँ छ लंकेश तु को छै बानरा। कैका बल परि य बँण उजाडा।। 
के त्वील कानल् सुण नैं मिकैं। देखणी अति आशंका सठ तुकैं।। 
मार निशाचर के अपराध। बता सठ तुकैं न प्राणकि बाधा।। 
सुण रावण उँ ब्रह्माण्ड निकाया। पै जनर बल रचैंछा माया।। 
जनार बल ब्रह्मा हरि ईसा। पालनि सृजनिं हरनिं दससीसा।। 
जनार बल रव्वर धरि सहसानन। ब्रह्माण्ड समेत सब पर्वत डान।।
धरनीं विविध देह सुरत्राता। तुम जस सेठों कैं सीख दाता।।
शिव धनुष कठिन जैल मंजा। वीक समेत नृप दल मद गंजा।। 
खरदूषण त्रिसरा औ बाली। मारा सब अतुलित बलशाली।।

<पिछला भाग-०१                                                                                                          <अगला भाग-०३>


मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 26-10-2020
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