"स्वैंणाँ द्यखँण हैगी"

कुमाऊँनी कविता-उ खावक् पाणि, उ कागजैकि-नाव , जाँणि काँ बगीं? सब स्वैंणा द्यखण हैगीं।Kumaoni Poem remembering old time rural life

"स्वैंणाँ द्यखँण हैगी"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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यू , द्यू, त्यू, झार, छल्लम
उ गुल्ली-डंडाक् खइँन।
उ पाथरक् अड्डू,
उ गंज्याड़ुकि गाड़ि,
उँ नानछिनाक् अमल,
उँ दगड़ियोकि दाँणि।
पाँच डबलाक् खेल उ घसुच्ची कि खइँन।
अर्याठि कर्याठि
बाट् घाटै ,ढुँङ-माँटाक् नानछिनांक् कुड़,
उ बर-ब्योलिक् बर्यात,उँ नानछिनाक् खेल।
उ रभड़क् गिनूँ ,उ कागजक् बौल,
सुट्ट- पन्नौंकि-गड्डी,
उँ नानछिना क् खैल।।
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उ घसोड़ी घुनाँ में,
टाल् हाली सुर्याव,
उ माँटाक्-गल्लैक,
उ च्यौंनिक राव,
उ माँटैल रङिल ख्वौर, धुस्यार बाव।
सब ल्हैगीं भड़ागा-चुलनि, उ खावक् पाणि,
उ कागजैकि-नाव ,
जाँणि काँ बगीं?
सब स्वैंणा द्यखण हैगीं।
सब स्वै़ंणां द्यखण हैगीं।।
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उँ रङिल झ्वाड़, वाल् बाखई-पाल् बाखई।
उ बड़बाज्युकि ह्वाक्,
उ आमैकि-चौथ्याइ,
उ आँण - काथाँ कि रात, उ बौड़ियौंकि रत्याइ।
उ काइ भैंसक् दूध,
उ झालि- गोरुक् घ्यु,
उँ आमाँक् काटी दुँणकाटाक्-पू,
कौस मैंसौंक् मन छी?
रड़ै दिछी भद्याइ।
बचलौ, मि फिर खौंल। लै पैली खा तू!
उस मैंस्योव!
जाँणि काँ बगी?
सब स्वैंणां द्यखण हैगीं। सब स्वैंणा द्यखण हैगीं।
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मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 28-04-2020

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