
कुमाऊँनी में श्रीमद्भगवतगीता अर्थानुवाद्
नौऊं अध्याय - श्लोक (१८ बटि २५ तक)
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।।
तपाम्यहमहं वर्षं निग्रह्णाम्युतसृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।१९।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- मैं ई लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरण दिणी, और सबन् है प्रिय मित्र छूं। मैं सृष्टि और प्रलय क् आधार और आश्रय छूं, यानि मैं अविनाशी बीज छूं। हे अर्जुन! मैं ई ताप (ऊर्जा) प्रदान करनूं, बर्ख करनूं और रोकनूं, अमरत्व लै मैं ई छूं और साक्षात् मृत्यु लै मैं ई छूं। आत्मा और पदार्थ यानि सत् और असत् लै द्वियै मी में जी ज्याणौ।
(अर्थात्- जो भगवान् ज्यु कैं नि ज्याणोंन् ऊ पथभ्रष्ट है जां, चाहे ऊ जप, तप, यज्ञ, अनुष्ठान क्ये लै करौं, ल्यख नि लागौंन्। सबन् है पैली समजंण चैं कि बिना आधारै यौ धरति कसिक् टिकि रै, बखत्-बखत् पार् ऋतु परिवर्तन कसिक् हुनौ, दिन-रात कसिक् सुनाई, भला-भल् फूल कसिक् खिलनई। यौ सब करणीं भगवान् ज्यु ई छन् चाहे कृष्ण कै लियो, राम,विष्णु, महादेव कै लियो या फिरि देवी भगवती , सरस्वती, लक्ष्मी या दुर्गा कै लियो सब परमेश्वर क् रूप छन्। वी कर्ता, वी भर्ता और वी संहारक छीं यानि दैव एक और रूप अनेक छन्।)
हिन्दी= मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम शरणस्थली तथा अत्यन्त प्रिय मित्र हूँ। मैं सृष्टि, प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ। हे अर्जुन! मैं ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा करता हूँ तथा रोकता हूँ, मैं ही अमरत्व हूँ और साक्षात् मृत्यु भी हूँ। आत्मा तथा पदार्थ (सत् और असत्) दोनों मुझमें ही हैं।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा, यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।२०।।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना, गतागतं कामकामा लभन्ते।।२१।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- जो निरंतर वेदों क् अध्ययन करनीं और सोमरस पान करनीं (सोमरसक् अर्थ शराब न्हैं, सोमवल्ली एक लता क् नाम छू येक् रस कैं सोमरस कयी जां) ऊं स्वर्ग प्राप्ति कि इच्छा करते हुए मेरि पुज करनीं ऊं पापकर्मन् है शुद्ध है बेर् इन्द्र क् पवित्र धाम स्वर्ग में जनीं और वहां द्यप्तनांक् जस् सुख भोगनीं। परन्तु जब उनार् पुण्यकर्म खत़्म है जनीं तब उनूकैं फिरि यौ मृत्यु लोक में ऊण पडूं और जन्म-मृत्यु क् चक्र है मुक्त नि है सकन्।
(अर्थात् ज्ञानक् अधार ल्हीबैर् भले ही तीनों वेदों क् अध्ययन करि लियो पर इन्दिय सुखैकि कामना बणीं रौओ त् ज्यादे से ज्यादे स्वर्ग लोकैकि प्राप्ति है सकीं, पर पुण्यकर्म खत्म हुंण पार फिरि मृत्यु लोक में ऊंण पडूं और जन्म-मृत्यु क् चक्र है मुक्ति सम्भव न्हैं)
हिन्दी= जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस ( शराब नहीं) का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं, और पापकर्मों से शुद्ध होकर इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम मे जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं जैसा आनन्द भागते हैं। इस प्रकार जव वे विस्तृत स्वर्गिक सुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे पुनः इस मृत्यु लोक में लौट आते हैं। इस प्रकार जो सिद्धांतों में दृढ़ रहकर इन्द्रिय सुख की ही इच्छा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम्।।२२।।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।!23।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- जो लोग अनन्य भावैल् म्यर् दिव्यरूपक् ध्यान करते हुए निरन्तर मेरि भक्ति में मन लगानी, उनरि जो लोग उचित आवश्यकता हैंछ ऊकैं मैं पुर करनूं और जो उनर् पास (पुण्य) छू वीकि रक्षा लै करनूं। हे अर्जुन! जो लोग अन्य द्यप्तनांक् पुज करनीं वास्तव में ऊं लै मेरी पुज करनीं, परन्तु त्रुटिपूर्ण ढंगैंल् करनी, जैक् कारण उनूकैं यथोचित फल नि मिलि सकौन्।
(अर्थात्- जस् कि पैली लै बतै हालौ कि द्याप्तों कि पुज करिबेर् साधक स्वर्ग प्राप्ति करि सकूँ पर पुण्यकर्म खत्म हुंण पार फिरि मृत्यु लोक में जन्म लिणै पडूं, पर जो श्रीभगवान् ज्यु कि शरण में रूँ और श्रद्धा-भक्ति पूर्वक भगवान् ज्यु कि भक्ति करूँ, भगवान् ज्यु वीकि समस्त बाधाओं कैं दूर करनीं और हर-सम्भव उनरि रक्षा करनी। यस् भगवान् ज्यु क् मत छू।
हिन्दी= किन्तु जो लोग अनन्य भाव से मेरे दिव्य रूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मुझमें अपना मन लगाते हैं, उनकी जो भी उचित आवश्यकताएं होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ, और जो कुछ उनके पास है, उसकी भी रक्षा करता हूँ। हे अर्जुन! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धा पूर्वक भक्ति करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु वे त्रुटिपूर्वक ढंग से करते हैं इसलिए उचित फल प्राप्त नहीं कर पाते।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति मे।।२४।।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।
कुमाऊँनी:
भगवान् ज्यु कुनई कि- मैं सब यज्ञों क् भोक्ता छूं, जो मिकैं म्यर् दिव्य स्वभावैल् नि ज्याणन् ऊं देवलोक, पित्रलोक या भूतलोक प्राप्त करनीं और कुछ समय उपरान्त मृत्यु लोक में वापिस ऊंनी। जो द्याप्तन् कै पुजनी ऊं देवलोक, जो पितरों कैं पुजनीं ऊं पित्रलोक और जो भूतन् कैं पुजनीं ऊं भूतलोक में अपंण कर्मू अनुसार फल भोग करि बेर् वापिस यौ मृत्यु लोक में ऊंनी और जो मेरि पुज नियमानुसार करनीं ऊं म्यार दगड़ निवास करनीं।
(अर्थात्- भूत पूजा, पित्र पूजा या देव पूजा करंण वाल् कुछ समय उन लोकों में जै बेर सुख प्राप्त अवश्य करनीं पर पुण्य फल खत्म हुणाक् बाद यौ धरति पर उणें पडूं पर जो अनन्य भावैल् भगवान् ज्यु कि शरण में रूनीं और उनरै ध्यान या पुज करनीं ऊं भगवान् ज्यु दगड़ निवास करणाक् पात्र बणि जनीं।)
हिन्दी= मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ। अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं। जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं वे पित्रों के पास जाते हैं, जो भूत- प्रेतों की उपासना करते हैं वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं।
जै श्रीकृष्ण
(सर्वाधिकार सुरक्षित @ हीराबल्लभ पाठक)
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स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर, रामनगर

श्री हीरा बल्लभ पाठक जी की फेसबुक वॉल से साभार
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