
-:काठौक खुट लुऔक कपाल:-
लेखिका: अरुण प्रभा पंत
भ्यार ताव, ताव में लागि भौयफूल
इतु दिन माथ एयी भयां हम
जंग लागि ताव कं खोलण हुं
भ्यार पातपतेल बोटन में चाड़ाक घोल
बड़ुआक जाव में लटकी किड़ पिटंग
भैर भै उज्याड़ मन में निस्वास
यां बैठन छी बड़बाज्यू यां आम्
बगलैक आम् नड़क्यूड़ हुं तंग्यार
हर बात में जांठ उठूणी हमरबाबू
कां गोन्हाल सब म्यार ऊंआपण
पढ़ लेख बेर जो गयां हमसब भैर
नि लौट सकां ताव में लाग गो जंग
पैल्ली बगलैक आम् धरछी ध्यान
उलै पुजि गे हो आब आपण धाम
भौं तरफाक ठुल दाज्यू छनैछन
हमन कं देख बेरऐयी हमार तीर
"हाय कब कतु दिनांक लिजिआछै"
'पुज' हुं आन्हलैन्है और कैआलै यां
न्हैजालै तुलै फिर भोल हुं या पोरूं"
नै नै दाज्यू ऐं रूंल आब नि जूंल कैं
रै संकलै तु यां जां क्वे न्हां आब
दिन दोफर में सूंगर बानर रात हुं बाग
योयी रैगे कहानि आब हमरि भाऊ
भौत्तै मिहनत काठौक खुट लुऔक कपाव
हुण चैनी दाण लै भौत्तै सार
न दवाय न पुड़ी के निभै यां
एक्कै सड़क बण गे आर-पार
डानन में आग मौसम में बदलाव
यौ मंदिर नि हुना तो को ऊन यां
पुजि पाति और देखण हुं गौं ग्वैठ
एजानि कभै कभै कुछ मैंस लै यां
टिक नि सकन आब यां क्वे लै
चैनेर भौय यां रूण हूं भाऊ
बानरौक कल्ज, स्यावैक जै बुद्धि
सियौ जौ तरांण।
मौलिक
अरुण प्रभा पंत

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