
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- "जानहर" या जांतर (हाथ की चक्की)
लेखक: प्रकाश उप्रेती
इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं। यह एक तरह से घरेलू चक्की है। पहले हर रोज अम्मा जानहर चलाती थीं और उससे आटा निकालती थीं। यह जो पत्थर के बीचों- बीच एक छेद दिखाई दे रहा है उसमें गेहूं, जौ, बाजरा, और मंडुवा डाला जाता था। साथ ही इसमें लकड़ी का एक हत्था भी होता था जिससे इसको घुमाते थे। इन दो पत्थरों के बीच में लकड़ी का एक साँचा लगता था जो धुरी का काम करता था। फिर जब इसको घुमाते थे तो इसके चारों ओर से आटा निकलता था।
पहले अम्मा और ईजा सुबह चार बजे उठकर जानहर चलती थीं। यह बड़ा कठिन काम था। उनके हाथों में अक्सर दर्द रहता था लेकिन उनके पास इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। इसलिए चलाने की बारी लगती थी। कभी अम्मा तो कभी ईजा। एक दिन में वह 4 से 5 किलो आटा निकाल लेते थे। हम लोग अक्सर छोटा सा झाड़ू लेकर आटे को इकट्ठा करते थे या मंडुवा उसमें डालते थे। इसके पास बच्चों को कम ही आने दिया जाता था।
बाद के दिनों में 'घट' आ गए। घट पानी से चलते थे। एक तरह से पानी से चलने वाली चक्की। फिर हम 'घट पीसने' जाते थे। घट पीसने का मतलब था, घर से गेहूं, मंडुवा , बाजरा लेकर पानी की चक्की वालों के पास जाना। जिनका घट होता था वो हमारे गेहूँ, मंडुवे को पीसकर अपनी मेहनत के रूप में उसमें से थोड़ा आटा ले लेते थे। पैसे कभी नहीं दिए जाते थे। उनके पास एक बर्तन होता था। वह उसी से आटा निकालते थे। वही उनका पैमाना होता था।
बरसात के दिनों में नदी में जब बाढ़ आती थी तो घट बह जाते थे। तब फिर से अम्मा का जानहर चलने लगता था। अब यह घर में लगा भर है। कुछ लोगों ने इसे अपने घरों से निकाल भी दिया है। उनको लगता है, यह जगह घेर रहा है।

अब न कोई जानहर लगाता है, न ही कोई घट पीसने जाता है। अब हम आटा पीसने और आटा लेने जाते हैं। सुना है हमने तरक़्क़ी कर ली है, बल।
"जानहर" या जांतर का किस्सा सुनिए, प्रकाश उप्रेती जी के स्वर में - हैलो हल्द्वानी FM के सौजन्य से:

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-06
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