
जंगल का हाल (कुमाऊँनी गीत)
रचियता: शिवदत्त सती
विद्वानों के अनुसार शिवदत्त सती ’शर्मा‘
कुमाऊँनी भाषा के पूर्व मध्ययुग के प्रतिनिधि कवियों में से हैं
जिनका कुमाऊँनी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।
इनका जन्म 1848 में फलदाकोट अल्मोड़ा में होना बताया जाता है।
सती जी की आठ रचनाओं "मित्र विनोद, घसियारी नाटक, गोपी गीत, बुद्धि प्रवेश (तीन भाग),
रुक्मणि विवाह तथा प्रेम और मोह" का उल्लेख डा. अनिल कार्की ने अपने
कुमाऊँनी भाषा के इतिहास से सम्बन्धित लेख में किया है।
कई विद्वान सती जी को कुमाऊँनी गज़ल लिखने की परम्परा का प्रथम कवि भी मानते हैं।
प्रस्तुत गीत सती जी की रचना "घस्यारी" नाटक से पहाड़ पत्रिका के माध्यम से प्रस्तुत है।
परवत रौंणो भलो जन पड़े माल।
कैथे कौंनु को सुंणछ जंगल का हाल॥
पैली’का पुराण मैंश क्वेजा छिपा माल।
धाल फडादई दूध भला छिया शाल॥
आराम’का लिजिया वां माल’सू जांछियां।
चार महिना भावर में सुख ले खांछियां॥
अब हैगो जंगला’त माल ले पहाड़।
ठौर ठौर वणपन तार लैगे वाड़॥
दुःख हगो सब ठौर कसी जानि माल।
घर वण सबै जागा योई जन जाल॥
जंगल’का शोतो शोतो पतरोल रौनी।
बिन पास जंगल में झन आया कोनी॥
नि’मिलना बिना पास लड़का ले घास।
आठ आना दातुली को होई गौछ पास॥
शाल शाल पतरोल नयां नयां औनी।
दातुली ले लूठि लिनी कुबात ले कोनी॥
के करनी जिमिदार जंगलको वेद।
इज्जतवाला’को जाणो होई जांछ भेद॥
हकवाला थै ले कोनी लिलियो कै पास।
नि’मीलनो भलो नजीक लै घास॥
आठ आना कहै दिनी गरीव कंगाल।
कैथे कौंनु को सुंणछ जंगल’का हाल॥

कविता के शब्दों में भाषा के अनुसार कुछ परिवर्तन किया गया है।
"पहाड़" पत्रिका तथा देवेंद्र नैनवाल जी की फेसबुक वाल से साभार
फोटो सोर्स: गूगल
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