बुड़ रणीं गो - कुमाऊँनी कविता

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बुड़ रणीं गो

रचनाकार: हीरा बल्लभ पाठक

बुड़ रणीं गो, रकसी गो, पगली गो हो,
यस् लै सुणंण में ऐजां, अच्याल् होइ पै।

  पै बुड़ लै, कम जै क्ये भाय् कूंछा, 
   हर बात में मीन मेख, निकावणैं आदत।
  
    अत्ति टोका टाकी, भलि जै क्ये हूं पै,
     चंणी रूंण चैं, बुड़ बाड़ि ल्, चुपचाप।

      अच्याल् जमान्, एडवांस छू हो,
       मोबैल्  कंपूटरैल्, मिलि जनीं संस्कार।
 
        को सुणूं तुमरि बात, टैमैं न्हां कैकै पास,
         एकहती पैलाग् कै दिनीं, यतुकै छू भौत्।

          च्यल् ब्वारि खुशि छन्, उनरि गिरस्ती,
           तुमर् दिन कटी गयीं, मौज करौ मस्ती।

            घर  भित्येर छा, यौ लै छू भलि बात,
             नन्तर वृद्धाश्रम लै, नजीकै छू द्वी हात्।
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हीरावल्लभ पाठक (निर्मल), July 3, 2021
स्वर साधना संगीत विद्यालय लखनपुर,रामनगर
 
हीरा बल्लभ पाठक जी द्वारा फेसबुक ग्रुप पहरु पर पोस्ट

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