सुन्दरकाण्ड कुमाऊँनी भाषा में भाग-०१

कुमाऊँनी भाषा में सुन्दरकाण्ड पाठ - Kumauni Bhasha mein Sunderkand path

कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०१ (Sunderkand-01)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
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आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में 
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में 
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़ 
को साभार हार्दिक धन्यवाद।

श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ

श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते

कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड

ष्लोक
शान्तं शाष्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं 
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यममनिषं वेदान्तवेद्यं विभुम्। 
रामाख्यं जगदीष्वरं सुरगुरुं मायामनुश्यं हरि
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।।

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। 
भक्ति प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं 
दनुजवनकशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् 
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं 
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।

शाष्वत शान्त प्रमाण नैं निष्पाप मोक्षरूप परम शान्ति द्यणीं। 
सर्वव्यापी वेदान्तोंलै जाणिणीं ब्रह्मा शिव शेष रोजै सेवनीं।।
द्याप्तों में ठुल जगदीष्वर मायाल् मनखि रूप में देखियणीं। 
राम कउँणियैकि वंदना करूँ उ दयालु रघुवर राजांक् शिरोमणीं।।1।।

न्हैं क्वेलै दुसरि इच्छा साँचि कौंनूँ रघुपति हियैकि जाँणणीं।  
कामादि दोषरहित मन करो रघुकुलश्रेष्ठ पुरीभक्ति दियोआपणीं।।2।।

अतुलितबलधाम सुन कि डाँन् कि जसि आभा ल्हेई।
दैत्यवणाग्नि ज्ञानियों में अघिल गिणियँणीं।। 
रामप्रिय भक्त पवनसुत सबै गुणों की खाँणीं। 
हे वानरों क् स्वामी तुमुकैं नमन तुमुकैं नमामि।।3।।

सुन्दर वचन जामन्ताका भया। सुणि हनुमंतका हिय ऐग्याया।। 
तब तक द्यखो बाट् तुम भाई। सहिबेर दुख कंद मूल खाई।। 
सियकैं जब तक औंन देखि। ह्वल काम मिकैंणि हर्श विशेषी।। 
यस कैं न्यौड़ै सबुहौं माथा। ल्हैगीं हरशि हि धरि रघुनाथा।। 
छि सागर ढीक एक पर्वत सुन्दर। खेलखेल कूदि पड़ीन उ पर।। 
बार बार उ रघुवीर सुमिरी। कुदि पवनसुत जोरैल भारी।। 
जो डाँन चरण धरनि हनुमन्ता। उ छिरि गोछि पैतावै तुरन्ता।। 
जसै अमोघ रघुपति का बाँण। वीकि चारी जाँनीं हनुमान।। 
समुद्र ल् रघुपति दूत विचारी। क मैनाक ह इनर श्रमहारी।।

दोहा-
हनुमान ल् उकैं हाथै छुङि फिर करछ प्रणाम। 
रामकाज करियै बिना म्यकैंणीं काँ विश्राम।।1।।

जाँण पवनसुत देवोंल् द्यख। जाँणुहैं बुद्धिबल वीक विशेष।।
सुरसा नाम स्यापोंकि माता। भेजि ऐ कैं उनुँहुँ य बाता।। 
दे अब देवांल् मिकैं अहार। सुणीं वचन कया पवनकुमार।।
रामकाज करिबे फिर औंल। सियै कि खबरा प्रभु कैं सुणौंल।।
तब त्यर मुख मिं पौस्यौंल् आई। सत्य कँ मिकैं तु जाँण दे माई।। 
क्वे लै उपायलै नि दिनि जाँण। नेइ दे मिकैं कांछि हनुमान।। 
योजन भरि वीलै मुख पसार। कपि शरीर बढ़ौं दुगुण विस्तार ।। 
सोल योजन वीक मुख है गो। तुरंत पवनसुत बत्तीस है गो।। 
जसै जसै सुरसा क् मुख बढ़छ। वीकै दुगुण कपि रूप दिखौंछ।। 
सौ योजन वीलै मुख करि दी। रूप नानूँ पवनसुत करि दी।। 
मुख पौंसि फिर उँ भ्यार ऐगीन। ख्वर न्यौड़ैबे विदा माँगणीन।। 
म्यकैं देवोंलै ज्यै लिजि भेजछ। बुद्धिबलभेद त्यर मील पैहैछ।।

दोहा-
रामकाज सब करि द्यला तुम बल बुद्धि क् निधान। 
आशीष दि उ ल्हैगेई खुषी ल्हैगीं हनुमान।।2।।

राक्षसी एक समुद्र में रौंछीं। अगास माया करि पंछि टिपछी।। 
जीव जन्तु जो अगास उणाँछी। पाणि देखछि उनरि परिछाई।। 
नि उडि़ सकछि जैकि पकडि़ छाया। यै विधि सदा गगनचर खाया।। 
उ छल हनुमान हैं लागि करण। वीक कपट कपिलै झट पछ्याँण।। 
उकैं मारी पवनसुत वीरा। समुन्दर पार ग्याया मतिधीरा।। 
वाँ जैबे बँण कि शोभा देखि। समुन्दर पार ग्याया धीरमति।।
अनेक बोट फल फूल छाजँण। पशु पंछी झुण्ड देखी मन भाँण।। 
डाँन् विशाल एक द्यख सामणी। उपैरि दौडि़ पड़ा डर छोड़ी।। 
उमा न के य कपि की बढ़ाई प्रभु प्रताप जो काल कैं खाँछि।। 
गिरि पर चढ़ी लंका वाँ देखी। कई नि जान् अति दुर्ग विशेषी।।
भौत उच्च सागर चारों ओर। परम प्रकाशित सुन क् परकोट।।

छंद-
सुनक कोट विचित्र-मणि जडि़ भौत सुन्दर घर हनीं।
चौबटी बजार भाल बाट् गलि सुन्दर पुर भौतै बणीं।।
पैदल खच्चर हाथी घ्वड़ा रथों समूहों कैं को गिणो।। 
भौतै रूप राक्षसों दल अति सेना बल वर्णन नि बणों।। 
बँण बाग बगीच फुलवाड़ी ताल कुँ बावली उँ छाजणीं।। 
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहणीं।। 
कैं मल्ल देह विशाल पर्वत समान अतिबल गर्जणीं। 
अनेकों खई में भिडि़ कदु विधि एक एक हैं हाँकणीं।। 
करि जतन योद्धा कोटि विकट तन चौतरफै रक्षणीं। 
कैं मैंस भैंस गौ गधा बाकर कैं राक्षस खल भक्षणीं।। 
यै लिजिक् तुलसीदास इनरी काथ् कुछेकै छू कई।। 
रघुवीर बाँण तीर्थ आँङ त्यागि गति ञ पैल्ह्याल् सई।।

दोहा-
नगर रख्वाव देख भौत कपि मन करौं विचार। 
भौत नाँन् रूप धरिं रात नगर म् करूँ बिहार।।3।।
मच्छर समान रूप कपि लै धरि। लंका ल्हैगीं सुमिरी नरहरी।। 
नाम लंकीनी एक निशाचरी। काँ जाँणैंछै तु मिकैं निदरी।। 
जॉंणन न्हैंतै भेद सठ म्यर। म्यर आहार जदुलै छन चोर।। 
एक जोरकि कपि ल् मुट्ठी हाँणीं। खून की उल्टी भिमें अनमनिणीं।।
फिर समई बेर उठी उ लंका। हाथ जोडि़ करें विनय ससंका।। 
जब रावण कैं ब्रह्माल् वर दिय। जाँण बखत मिहैं कईनां चिन्ह।।
ब्याकुल हलि जब तु कपि का मार। तब जाँणिये निशिचरों संहार।। 
तात म्यारा बाड़ पुण्य भौता। आँखाँल् द्यखछ राम क् दूता।।

दोहा-
तात स्वर्ग मोक्ष सुख धरी जाओ तुला एक अंग। 
तोलि नि सकन सबै मिलिबेर जो सुख क्षण सतसंग।।4।।

प्रविष्ट नगर करो सबै काजा। हिया धरी कौसलपुर राजा।। 
विष अमृत शत्रु करों मित्रताई। गोखुर सिंधु अग्नि शीतलताई।। 
गरुड़ सुमेरु धूल ज विहैं। राम कृपा करि देखनिं जैकैं।।
भौत नानुँ रूप धरि हनुमान। प्रवेश नगर सुमिरी भगवान।। 
उनुँल भवन एक एक सब खोजा। द्यखणिंन जाँ ताँ अगणित योद्धा।।
ग्याया रावण क् महल मेंजी। अति विचित्र कई जान् के न्हैंति।। 
देखि कपि लै उ सितँणैं रौछी। महल में वैदेही नि देखी।। 
भवन एक फिर वाँ द्यख छजाई। हरि मंदिर वाँ अलगै बड़ाई।।

दोहा -
रामायुध अंकित घर कि शोभा कई नि जानीं। 
नई तुलसिक् वृक्ष समूह देखि खुशी कपि राई।।5।।

लंका राक्षस दलों क् निवासा। याँ कसि हनल सज्जन क निवासा।। 
मन में तर्क करण कपि लागिनां। वी बखतै विभीषण जागिनां।। 
राम राम उ सुमिरण करणाँछि। हिया हरषी कपि सज्जन जाँणीं।। 
इनुँहैं हठ करी द्यौंल पछ्याँणि। साधु लै निहनि कामैकि हानि।।
विप्र रूप धरी वचन सुनाया। सुणिं विभीषण उठीं वाँ आया।।
करि प्रणाम पुछनीं कुशलाई। विप्र कओ आपु काथ् समझाइ।।
के तुम हरि भक्तों मेंजिछा क्वे। मेरी हिया में प्रीति यसि हैं।। 
के तुम राम दीन अनुरागी। आया मिकैं करण बड़ भागी।।

दोहा -
तब हनुमंत ल् कई सब राम कथा आपुँ नाम। 
सुणनैं उँ द्वि तन पुलक मन मगन सुमिरि गुणग्राम।।6।।

सुणो पवनसुत रहनि हमारी। जसि दाँत बीच जीभ बिचारी।। 
तात कभैं मि जाणां अनाथा। करला कृपा भानुकुलनाथा।। 
तामसी तन कुछ साधन न्हैंति। प्रीति न्हैं चरण कमल मन मेंजि।। 
अब मिकैं भछ भरौस हनुमंता। बिन करि कृपा मिलनैं नैं संता।। 
जो रघुवीर कृपा करि देछ। दर्शन हठि करि तुमुल मिकैं देछ।। 
सुणों विभीषण प्रभु की रीती। करनीं सदा सेवक पर प्रीति।। 
कओ कौन सा मिं परम कुलीन।कपि हौंछ चंचल सबै विधि हीन।। 
रात्ती ल्हियो जो नाम हमरा। उकैं उ दिन नि मिलन आहारा।।

दोहा-
यस मि अधम सखा सुण मिपर कृपा श्री रघुवीर। 
करि दि कृपा सुमिरि गुण भरणीं आँखाँ में नीर।। 7।।

जाँणि बे यसा स्वामी बिसारि। फिर उ किलै नैं हला दुख्यारी।। 
यै विधि कया राम गुण ग्रामा। पाइछ अनिर्वचनीय विश्रामा।। 
फिर सारि कथा विभीषण कई। जो विधि ल् जनकसुता वाँ रई।। 
तब हनुमान ल् कय सुण भ्राता। देखँण चाँनुँ जानकी माता।। 
युक्ति विभीषण ल् सब्बै सुणाई। हिटा पवनसुत विदा कराई।। 
धरी वी रूप गेईं फिर वाँ। उ अशोक बँण सीता रैंछि जाँ।। 
देखि मनैंमन करछ प्रणामा। भैटि बिति जाँनि रातक यामा।। 
दुबव ऑंङ ख्वार जटा वेणीं। जपैं हिया रघुपति गुणश्रेणी।।
दोहा-
आपुँ खुट आखि लगै मन राम पद कमल लीन। 
परम दुखि ह पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।।

बोट क् पातों मेंजि लुकि रईं। करणिं विचार करूँ के भाई।। 
वी बखतै उ रावण वाँ आय। संग नारी करि भौतै बनाव।। 
भौत विधि खल सीता कैं समझौंछ। उ साम दाम भय भेद दिखौंछ।।
कँ रावण सुण सुमुखि सयाणीं। मंदोदरी आदि सब राँणीं।। 
त्यार दासी सब हला प्रण म्यर। एक बार तो देख मेरि ओर।। 
तिनाड़ौं कि ओट कैं वैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
सुण दशमुख जैगिंणि प्रकाश। कभी कमलिनि के करें विकास।।
यस मन समझी कैंछ जानकी। दुष्ट सुधि न्हैं रघुवीर बाँणैकि।।
सठल सुनसान हरि ल्हेछ मिकैं। अधम निर्लज्ज लाज न्हैंती तुकैं।।

दोहा-
आपुकैं सुण जैंगिणी जस राम सूर्य समान। 
कटु वचन सुणि तलवार गाडि़ बुलॉं अति खिसान।।9।।

सीता त्वील म्यर कर अपमान। काटि द्यौं त्यर ख्वर कठिन कृपाण।।
नतरि आइ मान मेरि वाणीं। सुमुखि हलि न तो जीवन हानी।।
निल कमलों कि माव जसि सुन्दर। प्रभु भुज हाथि सूँड दशकंधर।। 
उ भुज गव या तेरि तलवारा। सुण सठ यस छू साँच प्रण म्यरा।।
हर तलवार म्यारा तपैक। जो रघुवर विरहाग्निबै पैद।।
तज अरडि़ श्रेष्ठ बगौंणि धार। कैं सीता हर म्यर दुख भार।।
सुणीं वचन फिर मारहौं आय। नीति कै मयैचेलिल् समझाय।।
कौंछि सब राक्षस बुलैबेर। सिया भौत डराओ जैबेर।। 
म्हैंण दिन में जो कय नि माना। तो मारँल निकाइ कृपाणा।।

दोहा-
भवन गोय दशकंघर याँ गींन पिशाचिणीं वृंद। 
सीता कैं डर दिखौंणिंन धरि रूप भौतै मंद।।10।।

त्रिजटा नामकि राक्षसी एका। राम चरण रति निपुण विवेका।। 
सबुकै बुलैबेर सुणाँछ सपन।सियकि सेवा करो हित आपण।।
लंक जलै वानरोंलै स्वैणॉं। सब गेई मरि राक्षस सेना।। 
गधा में सवार नभ दशसिसा। मुन्याई ख्वर कटी भुज बीसा।। 
यै विधि उ दक्षिण दिश हैं जाई। लंका मानो विभीषण पाई।।
नगर फिरी रघुवीर दुहाई। तब प्रभु सिया बुलै पठ्याई।।
य स्वैंण सच मि कौनूँ पुकारी। ह्वल साँची ग्याया दिन चारी।।
वीक वचन सुणिबेर सब डरी। जनकसुता का खुटाँ में पड़ीं।।

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