मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-''भिमुवोक डाव, गुन और सिट"
लेखक: प्रकाश उप्रेती
आज जरूरतों के हिसाब से हुनर पर बात। तस्वीर नंबर-1 में जो हरा-भरा पेड़ दिख रहा है उसे हम- 'भिमुवोक डाव'(पेड़) ,नंबर- 2 को 'भिमुवोक गुन', नंबर- 3 को 'भिमुवोक सिट' और नंबर- 4 को 'तसर' कहते हैं।
इन सबकी एक कहानी है जो पहाड़ को 'पहाड़ होने' से जोड़ती है। भिमु(Grewia optiva) के पत्ते गाय-भैंस खाते हैं। ईजा अक्सर कहती थीं कि 'आज भैंसें हैं के हरी-परी नि छु जा चल्या जरा डॉव (पेड़) बे भिमु काटी ल्या'। हम फुर्ती से पेड़ में चढ़ते और भिमु काट लाते। ईजा भिमु के पत्ते अलग करके उसके डंडों को एक साथ इकट्ठा कर देतीं। हमारे करीब 12-13 भिमु के पेड़ हैं। गाँव में जिनकी भैंस नहीं थी वो ईजा को बोल देते थे कि 'हमोर ले भिमु आपण भैंसे हैं काट लिये'। ईजा उन पेड़ों से भी भिमु काट लेती थीं क्योंकि माना जाता था कि इससे भैंस का दूध बढ़ता है। सारे पेड़ों का भिमु काटने के बाद डंडों का कटघो (ढेर) लग जाता था। ईजा बीच- बीच में इन्हें फैलाकर धूप भी दिखाती रहती थीं। घर से लेकर इस्कूल तक में हमें पीटने के लिए सबसे मजबूत और उपयुक्त डंडे भिमु के ही होते थे।

सारे भिमु के डंडे सूख जाने के बाद वह दिन आता था जिसका हम इंतजार कर रहे होते थे। यह दिन होता था भिमु के डंडों को नदी में दबाने का। हमारे यहां रामगंगा नदी बहती है। वैसे हमें ईजा कभी नदी में जाने नहीं देती थीं। हर तरह का डर नदी को लेकर दिखाया जाता था लेकिन हमारे मन में हमेशा नदी में नहाने, तैरने और मछली पकड़ने का भाव हिलोरें लेता रहता था। ईजा नदी में डूबने वालों के कई किस्से सुनाती थीं लेकिन हमारा नदी के प्रति आकर्षण कम नहीं होता था। भिमु दबाने के दिन गाँव के सभी लोग एक साथ नदी में जाते थे। ईजा हमारे सर में भिमु के डंडों की गठरी रखकर साथ ले जाती थीं।
नदी पहुंचने के बाद सभी लोग लाइन से घुटने- घुटने पानी में बड़े- बड़े पत्थरों से भिमु दबाते थे। हम ईजा को किनारे से पत्थर पकड़ाते रहते और अपना नदी में तैरने की कोशिश करते। ईजा बार- बार कहती थीं कि 'ईथां झन आये नितर बगी (बहना)जाले हाँ'...। हम किनारे पर ही छपम- छपम करते रहते थे। ईजा बड़े-बड़े पत्थरों से भिमु को दबाती थीं ताकि 'नदी आने' (बाढ़ आने) पर बहे न। उसके ऊपर पहचान के लिए एक लकड़ी भी लगा दी जाती थी। फिर ईजा हमको केदार में दुकान से 'दूध मलाई' वाली टॉफी दिलातीं और हम घर के लिए चल देते थे। ऊपर चढ़ते हुए बार- बार नदी की तरफ इशारा करके हम ईजा को कहते- ऊ छु हमोर भिमु... 

भिमु को 21 दिन तक नदी में दबाए रखने के बाद निकालने जाना होता था। गांवों के सभी लोग एक साथ जाते थे। ईजा हमको भी ले जाती क्योंकि वहाँ से 'भिमु के सिट' भी लाने होते थे। 21 दिन तक नदी में दबाए रखने से भिमु सड़ जाता था। उसमें बहुत तेज बदबू आती थी। ईजा पत्थर हटाकर भिमु बाहर लातीं और उसके रेशों को निकाल कर अलग-अलग करतीं। रेशों को अलग और डंडों को अलग रख देती थीं । रेशे निकालने के बाद जो 'डंडे' रहते थे उनको 'भिमुअक सिट' और 'रेशों' को 'भिमुअक गुन' कहा जाता था। इस काम में लगभग पूरा दिन लग जाता था। दोनों को अलग- अलग करने के बाद घर ले आते थे। ईजा सिट और रेशों को धूप में सुखा देती थीं। कई दिनों तक धूप में सूखने के बाद सिट और भिमुअक गुन दोनों को गोठ रख दिया जाता था...
भिमुअ'क सिट आग जलाने के काम आते थे। रोज शाम को ईजा के 'बण' (खेतों या जंगल में घास लेने) से आने से पहले हम चूल्हे में आग जलाकर चाय रख देते थे। आग पहले इन्हीं सिट पर लगाते थे फिर उनसे लकड़ियों पर आग पकड़ती थी। ईजा रोज ही बोलती थीं कि 'सिट कम- कम डाल हां चूल हन'..
भिमुअ'क गुन से ज्योड़ (रस्सी) बनता था। गाय- भैंस को बांधने से लेकर घास लाने तक का ज्योड़ इसी से बनाया जाता था। पहले बुबू रोज रात को 'तसर' (इस पर लपेट कर ही रस्सी बनती थी) और भिमुअक गुन लेकर बैठ जाते थे। वो ज्योड़ बटते रहते और हम उन्हें देखते रहते थे। कभी- कभी बुबू कहते थे 'अरे 'नतिया' (पोता) ले इकें जरा पकड़ ढैय्'। हम सरपट दौड़कर पकड़ लेते थे। वह इससे ज्योड़ की लंबाई का अंदाजा लेते थे। बुबू जी जब नहीं रहे तो मकोटक के बुबू (नाना जी) जब भी हमारे घर आते थे तो ईजा उनसे कहती थीं 'बौज्यू ज्योड़ नि छैं, एक- दी भैंसे हैं ज्योड़ बटी दियो'। वह जब तक हमारे यहाँ रहते थे तब तक सुबह- शाम ज्योड़ बटते थे।

बाद के दिनों में ईजा खुद ही ज्योड़ बटने लगीं थीं। ईजा कभी किसी पर निर्भर नहीं रहीं। आज भी वह हम पर निर्भर नहीं हैं। ईजा कहतीं हैं 'जब तक खुट- हाथ चलिल तब तक पेट भरी ल्योंल' (जब तक हाथ-पांव चलेंगे तब तक पेट भर लूँगी)। ईजा को खुद पर और अपनी दुनिया पर खूब भरोसा है। हमारे लिए जो बेकार और पिछड़ा है दरअसल वही ईजा की दुनिया है....
"भिमुवोक डाव, गुन और सिट" का किस्सा सुनिए, प्रकाश उप्रेती जी के स्वर में - हैलो हल्द्वानी FM के सौजन्य से:
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-15
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